वो तोड़ती पत्थर नए
 
 
 
 
 
 
 

 
 
तोड़ती रहती हर रोज वो पत्थर नए
सिर पर थामे बोझ हाथों में फावड़ा
कुदाली लिए

निकल पड़ती निज भोर होते ही
न मौसम की सुध न सांझ की ख़बर
दौड़ती रहती प्रतिदिन कार्य किये 

बह रही बून्द पसीने की शरीर से 
उसकी कोमल काया को तरबतर किये
दुबली पतली क्षीण सी दिखती
वो  फिर भी हाथों में सैकड़ों किलो का वज़न लिए

लेकर देह नारी की करती रहती कार्य
पुरुष सी कठोरता दिए
थामे हुए पेट में जीवन नया या मासिक
के दिनों की पीड़ा लिए

छोड़ जाती अपने शिशु को बिना कोई
दुलार किये
भर सके पेट उसका ताकि वह खुशहाल जिये

काश बदल सके जीवन उसका भी 
जो हो एक  नई विशेषता लिए
बन सके कोई कानून जो हो उसके अस्तित्व को सुरक्षित किये

मिटा सके जो माथे पर  लिखी 
इभारत को 
जो है सदियों से भविष्य को उसके
जकड़े हुए

तोड़ती रहती हर रोज वो पत्थर नए
सिर पर थामे बोझ हाथों में फावड़ा
कुदाली लिए।।