पवन तू है किस ओर चली
संग तेरे में भी बढ़ चली
जाने कौन सा देश मेरा
तिमिर से परे रवि का बसेरा
है तेरे जग में भीड़ भारी
फूलों सजी कहीं फुलवारी
बरबस निर्झरिणी की धारा
बहती झर झर बेबस किनारा
अंजाम से मैं भी अनजानी
बहा चली तू मुझे दीवानी
इस पथ न कोई मेरा अपना
कैसे सजाऊँ सुंदर सपना
सूने पथ स्मृतियाँ दिलाये
तेज़ हवा अंतस्थल सिहराये
फिर भी चलती ही जा रही
नव्य रंग रूप यूं दिखला रही
ऊष्ण सी कोमल करावली
धुँध संग ले आई विभावरी
दुनिया कैसी माया नगरी
प्रेम,नेह छलकती गगरी
कहीं बसा तेरा आशियाना
सजा जो कोई शामियाना
मैं भी हूं जग भूली बिसरी
तू भी तो कहीं ना ठहरी
कैसे हिय की पीड़ दिखलाये
सुंदर,रम्य रूप सा झलकाये
ऐसा धरा पर कोई कोना
हर्षित हो तब रूप संजोना।
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