जलती तपती भरी दुपहरी
रवि की किरणे तीक्ष्ण सुनहरी
तपन से जन आकुल हो रहे
पेड़ पौधे नमी खो रहे
सूरज के है तेवर तीखे
प्रचंड अग्नि लपटों सरीखे
आषाढ़ भी है ज्येष्ठ जैसा
हर क्षण बीते जाने कैसा
प्यासी धरा भी तब शुष्क होती
धरणी यूं शीतलता खोती
मनुज अत्यंत ही आकुल हुये
सदन में ठहर व्याकुल हुये
थम गये मंद पवन के झोंके
लू, ग्रीष्म शीतलता को रोकें
काले मेघ तब ना बरसते
मनुज परिंदे प्रतिपल तरसते
गगन में प्रचंड रवि का पहरा
पवन चक्र भी बरबस ठहरा
भास्कर तो अग्नि सी बरसाये
मनुज तड़प झुलसता जाये
बेबस अवनि भी नभ को ताके
स्याह पयोद उसको झांके
धरती करे पल पल प्रतीक्षा
धरा गगन की करें समीक्षा
नीर बूंदे पयोद बरसाये
प्यासी धरा की प्यास बुझाये
उग आयेंगे तृण यूं सारे
खिल जायेंगे बेबस नजारें।
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