****कुछ बात करूँ****

तन्हाई में कुछ बात करूँ
भीड़ बहुत है तेरे शहर में
अपने भी तो है बेहद सारे 
फिर भी किससे फरियाद करूँ

मसरूफ कुछ है अपने में
खफ़ा है कुछ मेरे सपनें से
कैद है कई अनगिनत सपनें
अब उन्हें कैसे आबाद करूँ

वक्त की धार में भूल बैठी
शायद खुद को थोड़ा जीते
खो गये मधुर तराने हिय से
उन्हें अब कैसे याद करूँ

बदले से है यूँ कुछ चेहरे
लगते थे जो कल तक तेरे
धूल जमी है धवल दर्पण पे 
उस रज को केसे साफ करूँ

महफिल में बैठे है सारे
दूर बैठे कोसों हमारे
करनी थी कुछ गुफ्तगू यूँ ही 
अब कैसे कोई पुकार करूँ

चुभ गये नयन में टूटे शीशे 
चिलमन उठा के देखा जो
सब तो थे मेरे अपने ही
किससे शिकवे बार बार करूँ