***माँ****
नित भोर के आते ही वो
रसोई घर मे चल पड़ती
दिनभर काज करते करते
कभी भी ना वो है थकती।
कामकाज से गहरा नाता
इसके सिवा कुछ ना भाता
गृहस्थी में समाई खुशियां
माँ के लिए वह सारी दुनिया
जग अपने आंचल में समेटे
जिम्मेदारियां घर की थामे
इतनी शक्ति कहां से लाई
यह तो केवल माँ ही जाने।
माँ के ऊपर कर्जे भारे
रूपए पैसे सिक्के सारे
छोटे- मोटे सस्ते महंगे
मन मस्तिष्क रचते बसते।
रख हिसाब पाई पाई का
जवाब न माँ की सिखाई का
किसी के पास शेष न रखती
आम हो या कोई खास हस्ती।
चूर हुई यूँ थककर काया
छूटी ना फिर काज की माया
रात्री शय्या पर जा रुकती
तब भी घड़ी को संग ही रखती
प्रात ही उठना आदत उसकी
रसोई घर हो जन्नत उसकी
स्वयं हेतु कभी कुछ न रखती
प्रेम, निवाला सब बाँट देती।
ईश ने माँ का हॄदय बनाया
असंख्य स्नेह इसमें समाया
कोई कलम न ऐसी बनाई
माँ की महत्ता जो लिख पाई।
परमात्मा ने पर्याय सृष्टि का
माता , जननी को बतलाया
ना उतर सका वो इस धरा पे
स्वरूप तब जननी का बनाया।
होती माँ की ममता निराली
माँ संग होते बड़े भाग्यशाली
दर्द आँचल में समेट लेती
भुला सारे गम दुलार देती
यदा कदा यूँ ही बड़बड़ाती
डबडबाई अँखियाँ दिखलाती
कभी बालिका बन अनायास ही
यूँ हँसती तब खिलखिलाती
बाबा के संग यूँ रूठ जाना
माँ के ये खेल रोजाना
कभी बेवजह लड़ते जाना
फिर सब भूल कर बतियाना
खुद के लिए कुछ ना रखती
सब कुछ वो बाँट ही देती
हो चाहे रोटी का टुकड़ा
खट्टा,मीठा नमकीन चिवड़ा
बैंक बड़ा ही अलबेला माँ का
छोटा सा वो डिब्बा दाल का
पाई पाई जोड़ कर रखती
जायदाद ये उसकी न घटती।
परमात्मा से विनती मेरी
गोद मिले हर जनम में तेरी
कोख से तेरी तब भी जनम लूँ
नेह ,अमृत, आशीष अब लूँ
जनम जनम तेरा दुलार मिले
जो शेष रह गया इस जनम में
मेरे भाग का सूक्ष्म सा ही
अगले जनम में वह प्यार मिले।
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