***वह मजदूर है***

नित  भोर  होते  ही   घर  से
इक आस लिये निकल पड़ता
न  कोई  सुध भूख प्यास की 
कार्य निरंतर करता रहता वो।

दिन बीते,वो  सदिया बिताये
भवन,महल,गृह आदि बनाये
हस्त  रखे  केवल  चंद  रुपये
अतिरिक्त इसके कुछ न पाये।

रखके आधारशिला सदन की
नवनिर्माण यूँ प्रतिपल ही करे
शोषित  रहता  वो बहु वर्ग से 
धीरज   हिय  में  तब भी धरे।

अनल  कुंड  सी यूँ तपती  धरा
करने  काज नंगे पैर चल पड़ा
भूख, तृष्णा  से बढ़े आकुलता
कहीं   तृष्णा   कहीं  प्रचुरता

यदा     उपजे   महत्वाकांक्षा
हृदय में दम तोड़ती आकांक्षा
 बरबस   स्वप्न  में  खो  जाता
भीतर कोई फिर उसे जगाता

चल  पड़ता  फिर कर्मपथ पे यूँ
हाथ  फावड़ा, कुदाली ही लिये
विस्मृत    हो   उन   स्वप्नों   से 
जो    देखके  अनायास   जिये

कभी  दो  जून की वो रोटी 
उसके  हिस्से में नही होती
करता रहता ताउम्र दिहाड़ी
शिथिल काया,टूटती नाड़ी

निर्धनता   का  वो  तिमिर घेरे
उज्जवल   पयोद क्षणिक ठहरे
लघु    झोपड़ी   में  यापन  करे
अल्प भोजन संग वो शयन करे।

बंजर    भूमि   पर   परिश्रम  से 
असंख्य अनगिनत पुष्प खिलाये
गगन   का   स्वर्णिम  स्वरुप  वो
सदियों    से    सँवारता   आया

नियम जो बदल दे जीवन उसका
सुंदर  जीवन  में  भाग है उसका
हो  तब   जीवन  में  नया  सवेरा
इक  नीड में  चिड़िया का बसेरा

बना   महल  आशियाने  सारे
 स्वयं  रहै   झोपड़ी के सहारे
सदियों  से  एक आस लगाये
समय जो उसका बदल पाये

बदले  जीवन  की वह दशा
उपजे   हिय  नव   प्रत्याशा
देखे  इक स्वर्णिम गगन सा
चल  पड़े  सुगम  पवन  सा।

✍️"कविता चौहान"
       इंदौर (म.प्र)
      स्वरचित एवं मौलिक