साजन के घर

 
 
 
 
 
 
 
 
डोली   में  मैं   बैठ  कभी 
अपने साजन घर आई थी ,
आंखों में लाखों सपने थे
घुंघट में शरमाई थी !

मांग भरी  सिंदूर ढेर सा 
फिर दुल्हन कहलाई थी ,
ओढ़ चुनर लाली इस तन पर
मैं पायल छनकाई थी !

प्रथम-प्रथम जब नई-नई थी
तब थोड़ा सकुचाई थी ,
फिर भी अनजाने उस घर मे 
सबसे प्रीत लगाई थी !

नहीं बहन ना सखियां कोई
मुझको वहां नजर आई ,
बाबुल का घर क्या छूटा
अब सारे रिश्ते टूट गए ,
कल तक जिनकी अपनी थी मैं
लेकिन आज पराई थी !

ढूंढ रही थी मां की लोरी और
ठिठोली  सखियों की ,
देकर  प्यार  हृदय  से  अपने
रिश्ते सभी निभाई थी !

पति को  परमेश्वर समझा 
चरणों मे शीश झुकाई थी ,
प्रेम और विश्वास अचल दे
दुनियां नई सजाई थी !

प्यार ,समर्पण की घुंघट में 
अपनी सेज सजाई थी ,
लेकिन बदले में फरेब, दुख 
मिली मुंह दिखाई थी !

अपने आंचल में समेट सब
फिर भी आस लगाई थी ,
कभी बदल जायेगा शायद 
सबसे बात  छिपाई थी !

कभी बिखर जाएगा सब कुछ
सोच नहीं ये पाई थी ,
ज़ुल्मों का सिलसिला चला तो
मेहँदी खून रंगाई थी !

हँस पाई फिर कभी नहीं मैं
उसने हंसी चुराई थी ,
फफक-फफक कर रोती रहती
कैसी प्रीत लगाई थी !

कोई  दर्द  न   सुनने  वाला 
नहीं एक इंसान मिला ,
तब अपना दुख मंदिर में जा
ईश्वर से कह आई थी !

घाव भरे थे नहीं अभी तक
नए जख्म नित मिलते थे ,
रोज नई पीड़ा को सहकर
कितना  मैं  घबराई  थी !

इज्जत  से  जीने  की  बातें 
बाबा मुझे बताए थे ,
बांध सहन का जब टूटा तब
छोड़ सभी कुछ आई थी !