*****इक निद्रा*****          

मेरे शीश पर हाथ रख देना 
गहरी  निंद्रा में सो जाऊंगी 
भूल  के   यूं उपालंभ सारे 
संग  हर्षित सी हो जाऊंगी

तंद्रा    से    हुये   बोझिल  नयना 
दीपक     से     यूं   जलते  बुझते
प्रीति का  वो इक राग सुमधुर सा
बरबस    ही  अब  कह  जाऊंगी 

कितनी गहन  एकाकिनी निशी
छीजता  तिमिर  बेबस प्राण ले
स्पंदन भी इक निस्पंदन सा ही
अंतस्थल  भी बसता बिखरता

बहता  रुधिर  रग  उन्माद लिये
कंठ उन्मुक्त  कुछ गाना चाहता
हर्षित  हो  संग  उल्लास  लिये 
वीणा  सी  नांद  करना चाहता

पूछता  बरबस  इक पैमाना
मदभरी आंखों का नजराना
ललाट की वो उन्नत सलवटें
पलकों  का यूं बंद हो जाना

इक   निर्झरिणी सी सहज हो 
तब  झर झर ही  बह जाऊंगी
इक  शिशु सा मृदु हृदय लिये
अचिंत,हर्षित हो खो जाऊंगी

नेह,  वात्सल्य    यूं  भीतर  झांकता
झिलमिल   आभा  कोहिनूर  बांटता 
उदधि संग तब  कंज सी हो जाऊंगी
कर  से    अक्षि   ढंक  सो   जाऊंगी।