***नेह दर्पण***
चली  आई जब  द्वार  तुम्हारे
आँचल  में  असीम प्रेम समेटे
पदचिन्हों  के  वह निशां सारे
थे वही खामोश बेबस हो छूटे

तारों   सँवरता  सा आँचल था
नयनों मे उम्मीद  काजल लगा
उल्लास   ,प्रेम    पयोद   घनेरे
अनाम  प्रतीक्षा उपालंभ गहरे

मेहेंदी,   से   सजते   पगों   में
सुंदर   सुमन  सेज  ही बिछती
महक  उठे  हिय  के  दर्पण  में
अनगिनत अरमां दहकती निशी

रक्तिम  सी   अग्नि  यूँ  जलती
अनल कुंड में बरबस धधकती
प्रचंड   तपन  सी बनकर  बीते 
कभी सिहरन बन भीतर रहती

अंनत    नेह    पारावार   गहरा
क्षणिक   जिजीविषा संग ठहरा
उपजे अंतस्थल इक अभिलाषा
भाव  विहीन  हो  टूटे  दिलासा

हर्षित   मन   मृग  मरीचिका  सा
रंगीन पुष्प सज्जित इक वीथिका
कहीं    खोई   अंतर्हित   पिपासा
नेह   वियुक्त    वो  अनाम आशा

नेह दीपक  अंतर्मन ही जलता
अनुराग  इक तो भीतर  पलता
मिली अश्कों की बहती सरिता
सुने    सदन   न  कोई  ठहरता।