***किसान का जीवन***

नित भोर  आते प्रतिदिन ही 
खेतों पर  वो  निकल पड़ता 
ना मौसम की सुध लेता कभी
कर्तव्य पथ पर चल पड़ता है।

नई  ऋतु ,नई  फसल उगाता
गेहूँ,  चना  ,गन्ना  साग  सभी 
प्रतिपल ही अनाज धान्य की
फसलें   यूँ   तैयार   बनाता।

बीज,अनाज से पौध बनाता
कहीं  वर्षा  जल   नहीं   पाता
देख  फसल  रोता   पछताता
पथ  कोई  न  उसे  दिखलाता।

कभी   प्रकृति  प्रसन्न  होती
कहीं वसुंधरा भिन्न सी होती
तब  सूखे, बाढ़  की दशा में 
परेशां  हो  पीड़ा  सह लेता।

फसल  हरी भरी  लहलहाती
किसानी   उन्नत   हो   जाती
मुखड़ा उसका यूँ खिल जाता
देख  फसल हर्षित हो जाता।

प्रकृति   आपदा   दिखलाती
फसलें   कभी  नष्ट   हो जाती
आर्थिक  बोझ  से दब   जाता
फसलों से फिर कुछ नही पाता।

ब्याज,ऋण  बढ़ते  ही  जाते
दुख ,दर्द उसके न  घटने पाते
जिंदगी चिंता में  सिमट जाती
दशा किसान की दुखमय होती।

कर्ज,उधारी तंगी से त्रस्त हो
इक दिन भीतर से  टूट जाता   
परिस्थितियों से विवश हो के
जीवन से अपने  हार जाता।

✍️"कविता चौहान"
      स्वरचित एवं मौलिक