वो इक पल.....
छूट गया वो पल यूँ रफ्ता
बिखरा जैसे कि टूटा पत्ता
निशां सा बाकी रह गया कहीं
शायद कुछ तो था छूटा यहीं
वो लाली झंकार अब कहाँ
स्याह सी चादर बिछी यहाँ
तन पर ओढ़े इक लबादा
भुला बिसरा कोई वादा
लब चाहते है कुछ कहना
स्वप्निल नयन अब न बहना
सिहरन सी इक भीतर थामे
हिय में अजब एषणा डाले
नभ में तो अब वही सितारें
चहुँओर है सारे नज़ारे
दामन मेरा सजा जाना
चाँदनी यहीं बिखरा देना।
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