चल दिया मुसाफिर
चल दिया मुसाफिर खाली मकान रह गया
राहें पूछती रही जाने कहां चल दिया
कल तक जो लगते अपने से थे
वो अब बेगाने हो चले
लग रहा था सब कुछ जाना पहचाना सा
फिर भी हर इक चेहरा अनजान हो गया
यूँ तो थी ईंट पत्थर से बनी सब दिवारे
फिर भी कुछ तो था जो वहीं रह गया
थी कल तक जहां चहल पहल
आज सब सुनसान हो गया
छूट गई दहलीज़ अब चल रहा बदहवास सा मैं सड़क पर सो गया
था शहर मेरा था वतन मेरा फिर भी मैं गुमनाम हो गया
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